Monday, November 7, 2011

नाई की दुकान



इतने सुबह तो हम कभी नाई की दुकान में नहीं आये थे, लेकिन कल बातो बातो में जो वादा कर बैठे कि तुम्हारी दुकान पर दिन बैठेंगे और अपने अनुभवों पर कुछ लिखेंगे| अब वादा किया तो आना तो पड़ेगा ही कम से कम अपने अनुभव का नाम तो सोच ही लिया था हमने "नाई की दुकान|"
अपने वादे के अनुसार जब वहाँ पहुंचे बल्लू खुश तो ऐसा हुआ जैसे पुरे दिन बैठ कर हमारे ही बाल काटेगा और पुरे गाँव के पैसे लेगा| खैर उचित आव भगत और सत्कार के बाद उसने कोन्टे में बिठा दिया| हमने भी एक-दो कोरे कागज और पेन निकाल लिए| ताकि उसे भी लगे हम सच में कुछ लिखेंगे| अब लिखने लायक कुछ मिलना भी तो चाहिए ना| 

वो कोना जहाँ अक्सर लोगो के बाल पड़े रहते थे, सुबह सुबह बड़ा साफ़ लग रहा था| बल्लू ने शायद हमारे आने के कारण इसे ज्यादा साफ़ किया होगा या फिर रोज ही करता होगा| उसके दुकान पर दो आईने और दो कुर्सिया थी, आज तक समझ में नहीं आया जब वो अकेले बाल काटता है तो दो आईने और दो कुर्सियों की क्या जरुरत? लेकिन आज जब खाली बैठे थे तो हमने ट्राय किया तो पता चला दूसरी वाली ज्यादा आराम दायक है| चलो कुछ तो मिला अगली बार इसमें बैठ कर बाल कटवाना निश्चित होगया| दो आइनों की बीच में फिरंगी लड़कियों के फोटो वाले बड़े बड़े पावडर के डब्बे, एक सस्ती शेविंग क्रीम, एक महँगी दिखने वाली शेविंग क्रीम, एक फिटकरी का टुकड़ा, पांच-छै कंघीया, पांच-छै कैचियां, दो उस्तरे पड़े हुए थे| आईने के ठीक ऊपर एक रेडियो था जिस पर वो अपने पसंद के स्टेशन लगाया करता है| और दीवार के उपरी सिरे पर नब्बे के दशक के हीरो के पोस्टर्स| ये सभी हीरो अब छोटे बाल रखने लगे है लेकिन आज भी इनके लम्बे बालो वाले पोस्टर्स की ही मांग है या फिर बल्लू के पास पैसे ही नहीं नए खरीदने के क्या पता| इन पोस्टर्स से जरा दूर अजीब अजीब से हेयर स्टाइल वाले कुछ लड़कों की फोटो लगी हुई थी, उस पर बड़े बड़े अक्षरों में बॉम्बे के किसी बड़े सेलून का नाम लिखा था| अगर कभी मुंबई जाना हुआ तो बाम्बे के इस सेलून जरुर जायेंगे| दीवारों का मुयायना अब कोने तक पहुँच गया था और वहा भगवान् की फोटो थी, छोटी सी| फोटो के नीचे एक गुंडी, गुंडी के पास ही एक घड़ा उल्टा रखा हुआ था, शायद ये वही घड़ा था जिससे गर्मी में बल्लू ने हमे पानी निकल के पिलाया था| और उसके पास ही एक बाल्टी, अब वो गुंडी से पानी बाल्टी में डालता था या बाल्टी से गुंडी में, आज तक कभी सोचा ही नहीं, लेकिन आज देख कर रहेंगे न जाने यह हम लोगो को क्या पिलाता है| लेकिन बल्लू ने पहले गुंडी धोयी फिर उसमे पानी लाके बाल्टी में डाला और फिर गुंडी में पानी लाकर रख दिया| अब हमे पता चल गया की हम जो पानी पीते थे वो सुरक्षित था| 

बल्लू ने छोटी से फोटो की छोटी सी पूजा भी की और अगरबत्ती को पुरे दुकान में घुमा कर एक आईने के बाजु में खोंच दिया| एक पल तो हमे लगा कि जैसे हमारी भी पूजा कर लेगा| कुछ देर तक कोई आया ही नहीं, हमारे पूछे पर उसने बताया की थोड़े देर में वहाँ देश का भविष्य आएगा| थोड़े देर बाद एक भविष्य आया, रोते हुए, जैसे बल्लू उसके बाल नहीं उसके कान काट लेगा| बल्लू ने एक पटिया निकाली कुर्सी के हंडल पर रखी जिस पर बच्चो को बैठा कर वो बाल काटता था, उसने एक उस्तरे को निकल कर बच्चे को दिखाया और कहा "इससे बच्चो के कान काटे जाते है और कैंची दिखा कर कहा इससे बाल" फिर उसने दोनों उस्तुरे उठा कर कुर्सी से दूर रख दिए और बच्चे को पटिया पर बैठा दिया| बच्चा अभी भी रो रहा था और दबी आँखों से देख रहा था कि बल्लू उस्तरा न उठा ले| बल्लू ने जैसे बालो को गिला करने वाली पिचकारी से उस पर पानी डालना शुरू किया, वो हसने लगा, लेकिन उसके बाद जैसे ही उसने बाल काटने शुरू किये फिर से रोना शुरू| अब तक वहाँ देश के दो-तीन भविष्य अपने अपने पिताजी दादाजी के साथ आगये थे| जिन्होंने अपने अपने बच्चो को दुकान के अन्दर बैठाया और खुद बाहर जाकर इधर उधर की बाते करने लगे| थोड़े बड़े होने पर इन बच्चो को पता चलेगा कि बाल मृत कोशिकाएं होती है जिनके काटने पर दर्द नहीं होता| लेकिन इस उम्र में शायद होता हो, आखिर बचपने में बाल कटवाने पर सभी रोते है| कुछ देर तक इन बच्चो का संगीत समारोह चलता रहा, किसी ने राग भैरवी सुनाई तो किसी ने ठुमरी|

हमारे तो कान पक गये थे, पता नहीं बल्लू रोज कैसे इन्हें झेलता होगा, अब करीब नौ बज गये थे, अब गाव के पढ़े लिखो की पारी थी, जैसे शिक्षक, पटवारी, पंच, सरपंच और ऐसे लोग जो बाल कम कटवा रहे थे गाँव की खबर ज्यादा ले रहे थे| किसने क्या कहा, किसने क्या नहीं कहा और क्यों कुछ हुआ तो क्यों कुछ नहीं हुआ, आज वहाँ गाँव की सारी राजनीति, कूटनीति, और भेदनीति सारी ही समझ में आगयी| इन लोगो से आज अपने ही गाँव की एक अलग तस्वीर देखने को मिल रही थी| खैर सुबह जल्दी उठने के कारण हमे भूख भी जल्दी लग गयी थी तो हमने बल्लू से थोड़े देर बाद आने का वादा कर वहाँ से चल दिए| अब तक कुछ खास मिला नहीं था लिखने के लिए अब वापस आकर भी क्या मिल जाता लेकिन वादा तो वादा होता है तो हम तीन बजे के आसपास फिर आगये| 
वापस आकर देखा तो देश का भूतकाल वहा जमावड़ा लगा कर बैठा था, गाँव के आधुनिकीकरण ने उनसे बरगद के निचे का चबूतरा छीन लिया था| खैर हमारी जगह अभी बल्लू ने बचा कर रखी थी| वो अभी भी बाल और दाढ़ी बनाने में लगा हुआ था| जिनके बाल हो उनके बाल काटना तो ठीक है लेकिन जिनके सर पर ही थोड़े बहुत बचे थे पता नहीं उनमे से बेचारा कितने काट पाता होगा| लेकिन हर बार हर बुड्ढा अपने आप को आईने में ऐसे देखता जैसे अभी अभी जवान हुआ है, एक अजीब सी चमक होती थी उनके नजरो पर, और फिर पीछे से कोई कुछ बोलता और सब हँस देते| शायद ये सब अपनी जवानी में रंगीन मिजाज़ के रहे हो, या फिर बुढ़ापे के अकेलेपन ने उनकी आधी अधूरी यादो को रंगीन बना दिया था| वो सभी करीब पांच तक बैठे रहे फिर एक एक करके निकल गये|  

अब दुकान में सबसे भयानक चीज़ आयी| हमारे देश का बस होने वाला वर्तमान, हमारे किशोर, युवा और कुछ अति युवा जो अभी भी नालायक ही थे| इनमे से कोई भी बाल कटवाने नहीं आया था| लेकिन बल्लू ने बताया इन्हें अगर बाल कटवाना भी होतो वो उन्हें शाम को ही आने को कहता है जिससे उनके लायक समय हो उसके पास| उनके लायक समय सुनने में अजीब लगता है लेकिन बल्लू ने बताया की पहले तो दस मिनट तक ये बालो को सहलाते है और अपने आप को समझाते है कि अभी काटने लायक नहीं हुए, बहुत से किशोर दस मिनट के बाद अपना विचार बदल लेते है और बातों में लग जाते है| जो बच जाते है वो अगले दस मिनट तक बल्लू को समझाते है कि कैसे बाल काटना है, और कुछ बल्लू को धमकाते भी कि अगर गलत बाल काटे तो अच्छा नहीं होगा| आखिर उनके बाल किसी सलमन शरुक से कम थोड़े ही है| सभी हमारे गाँव के कोई न कोई हीरो तो थे ही| बल्लू ने बताया शाम के वक़्त अक्सर वो खाली ही बैठा ही रहता है| कभी कभी कोई और आ जाता है तो ठीक है नहीं तो इन्ही लड़कों के हंसी मजाक से उसका समय निकल जाता है| कभी ये हंसी मजाक छोटा मोटा होता है तो कभी ऐसा कि उसे भी शर्म आजाये लेकिन बेचारा गरीब आदमी किसी को क्या बोले| गाँव की सारी बाते एक कान से सुनता है, दुसरे से निकलता है या नहीं वो ही जाने| 

अब दुकान बंद करने का वक़्त आगया था| बल्लू ने अपनी दिनभर की आमदनी गिनी और उसमे कुछ निकाल कर दुसरे डब्बे में रख दिए बाकी जेब में| पूछने पर उसने बताया कि वो हर दिन की आमदनी का दसवां हिस्सा दान कर देता है| यह जवाब मिलते ही जैसे पुरे दिन का अनुभव बदल गया| वो नाई की दुकान अब इतनी साधारण नहीं लग रही थी| वो दुकान बंद कर चला गया| जाते वक़्त कह गया कुछ लिख लो तो बताना| अब हम उसे कैसे बताये कि हमने कुछ लिखने का सोचा ही नहीं था, वो तो बस एक नाई था जिसे शायद हमने कभी महत्व ही नहीं दिया| कभी ध्यान ही नहीं दिया कि कैसे अलग अलग उम्र और अलग अलग तरह के लोग वहाँ आते है, फिर भी वह मुस्कुरा कर चुपचाप अपना काम करता रहता है| सबसे बड़ी बात बल्लू वो काम करता है जिसकी बहुत से बड़े लोग सिर्फ बाते करते है "दान"| हमने अपने मन भी बल्लू से एक और वादा किया कि उसके बारे में जरुर लिखेंगे और वादा किया है तो लिखना तो पड़ेगा ही| 

Saturday, November 5, 2011

चुप्पी



ओमी और राघव नदी के किनारे भीगे हुए बैठे थे| बहुत देर से किसी ने कुछ कहा नहीं था, आखिर कार ओमी ने कहा "चले?" राघव अभी भी अनंत में देख रहा था, शायद उसने ओमी की बात सुनी नहीं या सुनकर भी अनसुनी कर दी| ओमी ने फिर से पूछा "चले, इसी तरह बैठे रहे तो, ठण्ड लग जाएगी" जिस इन्सान ने अभी अभी आत्महत्या का प्रयास किया हो, उसे ठण्ड लगने का बहाना देना शायद कोई महत्व नहीं रखता| लेकिन राघव शायद मरना भी नहीं चाहता था, इसीलिए तो वापस पानी में नहीं कूदा था| ओमी को भी समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या कहे और क्या न कहे, अब आत्महत्या के प्रयास करने वालो से इन्सान कहे भी तो क्या, पूछने से बताएगा? और ज्यादा कुरुदने पर कही फिर से कुछ उल्टा सीधा न कर ले| ओमी भी बैठा हुआ था, और सोच रहा था कि कैसे वापस राघव को लेकर जाये|

यु तो लगभग हर फिल्मी और कहानी वाले गाँव के पास नदी होती है, तो ओमी के गाँव के पास भी नदी थी| लेकिन ओमी नदी किनारे बैठा सोच रहा था कि काश ये नदी नहीं होती, लेकिन नदी के होने न होने से क्या फर्क पड़ता है| नदी न होती तो नाला होता, तालाब होता या कोई छोटा बड़ा कुआ होता| गाँव की पानी की जरुरत के लिए ऐसे साधन तो होते ही है लेकिन इनके और भी उपयोग है या कहिये दुरपयोग| और लोग तो घर के पंखो से भी लटक जाते हैं उनका क्या| ओमी और राघव अभी वहा मूर्तियों की तरह बैठे थे, ओमी ने इस बार राघव पर जोर दे कर कहा "अब चलो भी, मुझे ठण्ड लग रही है, शायद कही तबियत ख़राब न होजये" राघव ने इस बार उत्तर दिया "हमने तो नहीं कहा था कि पानी में कूदो, चैन से मरने दिया होता तो हम भी मर जाते और तुम्हे ठण्ड भी नहीं लगती|" ओमी का मन तो हुआ कि कहे वापस कूद जाओ और इस बार हम बचायेंगे भी नहीं| लेकिन उसे पता था कि राघव अभी अपने आपे में नहीं है, न जाने किन विचारो ने उसे कैद कर रखा है तभी तो नदी में कूदा था| 


हमारा मन भी अजीब है कभी सोचते सोचते हम दूर निकल जाते हैं तो कभी उन्ही ख्यालो में बंध कर रह जाते हैं, और ऐसे विचार हमारे मस्तिष्क में सड़न पैदा करते हैं जो मनुष्य को गलत फैसलों के ओर ले जाते हैं| नदी के किनारे चलने वाली ठंडी हवा भी हमेशा सुहानी नहीं लगती| कभी कभी हमारे मन में चल रही उथापोह उन्हें चुभने वाली हवा बना देती है| नदी का कल कल करता पानी भी सुन्दर नहीं लगता ऐसा लगता है जैसे पानी की हर एक तरंग में एक उलझन है, एक सवाल है, एक ताना है, अपनी जिंदगी के मायने तलाशने को असफल मन नदी के किनारे बैठ कर उसे निहार नहीं पाता|  वापस जाने का साहस भी नहीं होता, क्यूंकि वापस जाने के रास्ते पर जैसे धिक्कारने वाली हज़ारों आवाज़े गूंजती रहती हैं| कभी कभी ये भाव किसी घटना से टूट जाते है और कभी इतना साहस आ जाता है कि वापस चले जाए| लेकिन हर व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं होता, कभी कोई क्षणिक उन्माद उसे अनंत में समां जाने की और धकेल देता है, इस उन्माद को हम आत्महत्या भी कहते है, वो चाहे पानी के सवाल हो या अपने कमरे के अकेलेपन में गूंजते सवाल, क्षणिक उन्माद ही तो होता है, मृत्यु को जीने का उन्माद, अपनी हर समस्या को हल कर लेने का उन्माद जो एक ऐसे दरवाजे की ओर ले कर जाता है जिसके दूसरी ओर क्या है किसी को नहीं पता|

"वापस जाकर क्या करूँगा?" राघव ने कुछ देर बाद पूछा| इससे पहले कि ओमी कुछ कह पता राघव ने खुद ही कहा "तुम्हे लग रहा होगा कि हम बेवकूफ है जीवन का मोल नहीं जानते, लेकिन ऐसे जीवन का क्या मोल जिसमे सिर्फ दुःख ही दुःख हो| पिछले साल कर्जा इतना बढ गया था कि समझ में नहीं आया क्या करे? लगा शायद ज़िन्दगी देने से समस्या हल हो जाये, लेकिन यह गलत होगा, तो फिर सही क्या होगा? आखिर करे भी तो क्या करे, कीटनाशक की शीशी को हाथ में लेके इसी उधेड़बुन में लगे थे कि तुम्हारी भौजी ने हमे देख लिया, उसे लगा कि हम आत्महत्या कर रहे है और फिर ये बात सारे गाँव में फैल गयी| तुम्हारी भौजी अब हमसे सहमी रहने लगी, ज्यादा बाते नहीं करती थी उसे लगता कि अगर कुछ ज्यादा बोल दिया तो फिर से मैं ऐसा कदम उठा लूँगा| कुछ गाँव वाले भी मुझसे बात करने में कतराने लगे तो कुछ मजाक उड़ाने लगे| बस ऐसा समझ लो कि एक भयानक चुप्पी ने हम घेर रखा था| ऐसी चुप्पी जो लाख चाहने पर भी हमे जीने नहीं देती, बहुत कोशिश की वापस जीवन से जुड़ने की लेकिन चुप्पी की इस दीवार ने जुड़ने ही नहीं दिया, और आखिर में हार कर आज वो कदम उठा लिया जिसके बारे में सिर्फ सोचा था" और अपनी लम्बी चुप्पी के बाद, इस तरह अपने मन की बाते बोलने के बाद, राघव रोने लगा| 

ओमी को न सिर्फ राघव पर तरस आ रहा था बल्कि हमारे समाज पर भी आ रहा था| जो आत्महत्या के बारे में बड़ी बड़ी बाते तो करता हैं लेकिन जब इससे निपटने का मौका आता है तब अक्सर पीछे हट जाता हैं| क्या राघव के जीवन में पहले से ही समस्या थी और अब हमारे बर्ताव ने उसके जीवन और भी कठिन बना दिया था| आखिर क्यों सिर्फ एक गलती, और राघव ने तो वो गलती की भी नहीं थी, और हम उस इन्सान से दुरी बना लेते हैं| हमे बदलना होगा, बात करनी होगी, चुप्पी तोड़नी होगी उन लोगो के लिए जिन्होंने ऐसी गलती की हैं, ऐसे लोगो के जीवन के लिए| कम से कम ओमी ने तो यह निश्चित कर लिया था कि वो ऐसी चुप्पी तोड़ेगा|

राघव के कंधे पर हाथ रख कर ओमी ने उससे कहा "इस घटना के बारे न तुम किसी को बताना और न ही हम किसी को बताएँगे, ये तो नहीं पता कि आज के बाद आपकी ज़िन्दगी में समस्या कम होगी या नहीं लेकिन कभी ऐसा रास्ता मत चुनना, और कल से रोज सुबह हमारे घर आ जाना, अम्मा की हाथ की चाय भी मिलेगी और हम आपसे बाते भी करेंगे|" ओमी और राघव दोनों अब गाँव की तरफ निकल चले या यूँ कहे ओमी ज़िन्दगी के नए सबक के साथ और राघव नयी ज़िन्दगी के साथ अब गाँव की तरफ निकल चले|

  
यह कहानी JD Schramm: Break the silence for suicide survivors से प्रेरित है| 
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