Saturday, September 22, 2012

जय गणेश देवा


"इतने बड़े भक्त हैं तो रोज मंदिर क्यूँ नहीं आते, मुझे यहाँ बैठा के पता नहीं क्या क्या करम करते रहते हैं" जैसे किसी ने गुस्से से कहा| ओमी ने इधर उधर देखा तो कोई भी नहीं दिखा| शायद कोई वहम हुआ होगा ऐसा सोचा कर जैसे ही आगे बढ़ा, आवाज़ आयी "इधर उधर क्या देखते हों, तुम्हारे सामने, इतने बड़े हम नहीं दिख रहे तुम्हे"|  ओमी ने सामने देखा तो गणेश पंडाल था, वहाँ भी कोई नहीं था, रात हो चुकी थी सब जा चुके थे, ओमी ने पूछा:
"कौन"
 "हम गणेश" 
"गणेश काका कहाँ बैठे हो दिख भी नहीं रहे"
"गणेशा काका नहीं बेटे गणेश भगवान्, तुम्हारे सामने इतनी बड़ी मूर्ति हैं और कहते हों दिख भी नहीं रहे"
"देखो जो कोई भी हैं, ये मजाक ठीक नहीं, हम जा रहे है, वैसे ही बहुत रात हो चुकी हैं"
"रात हो चुकी हैं इसीलिए तो सोचा आज तुमसे बात कर लेता हूँ, लेखक हो गणेशजी की बात भी नहीं सुनोगे?"
ओमी को पक्का यकीन हो गया था कि कोई शरारत कर रहा हैं, लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि कौन हैं और कहाँ, सामने गणेश पंडाल पर तो केवल मूर्ति ही थी, शायद मूर्ति के पीछे कोई हो, लेकिन पंडाल में इतनी जगह भी नहीं थी, उसे समझ नहीं रहा था तो उसने सोचा पास जाके देखता हूँ, शायद कोई छुपा हो|
"आओ बेटा, बैठो आज तुमसे ही गप्पे लड़ाते हैं"
"देखो जो कोई भी सामने आ जाओ, नहीं तो अच्छी खबर लेंगे"
"हा हा हा, तुम इन्सान भी अजीब हो इतनी पूजा पाठ करते हों, भगवान् पाने के लिए, और जब भगवान् खुद बात करने आते हैं तो तुम्हे शंका होती हैं, तुम्हे किसी की शरारत लग रही हैं तो जा सकते हों, किन्तु एक लेखक की तरह सोचो, एक नया अनुभव हैं चाहे तो लेलो"
ओमी को समझ नहीं आया कि वो क्या करे, लेकिन ये जानने के लिए कि आखिर ये हैं कौन, उसने सोचा बैठ ही जाते हैं, ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, कल उसकी हंसी उड़ायी जाएगी|
"तो आप यहाँ कब से हैं भगवन जी" ओमी ने मजाकिया लहजे में पूछा|
"इस बार तो बस अभी नौ दिन हो गये हैं"
"मेरे पूछने का मतलब था कि कितने सालो से, आप तो भगवान हैं, मेरे जन्म के पहले से होंगे"
"हमारी परीक्षा ले रहे हों, हमारी कहानी नहीं सुनी क्या? पिताजी ने भी एक दिन परीक्षा ली थी, और हमने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था| अब तुमने पूछा हैं तो सुनो, लेकिन बीच में टोकना नहीं, जब मैं खुद से रुक जाऊ तभी कुछ बोलना, तुम्हे मैं अपनी नहीं,  तुम्हारे ही गाँव की कहानी सुनाता हूँ"
"ठीक हैं"
"उस वक़्त देश गुलाम था, तिलक ने सोचा था कि घर में होने वाली गणेशजी की पूजा को बाहर लाये जाये जिससे देश में एकता आएगी| तो इस गाव में कुछ सालो बाद यह परम्परा शुरू हो गयी, तुम्हारे सरपंच के दादा जी ने ये शुरुवात की थी, तब वो एक नयी चादर और बांस के टुकडो से पंडाल बनाते थे, उजाले के लिए आज की तरह लाइट नही थी, हर घर से एक छोटा या बड़ा, तेल का या घी का दिया आता था और सारी जगह जगमगा जाती, आज की तरह वातावरण में फ़िल्मी गानों की आवाज़े नहीं, धुप, अगरबत्ती की खुशबू होती थी, रात में आरती के बात लोग धरम कर्म की बाते करते थे| कुछ लोग अहिंसा, तो कुछ क्रांतिकारियों के बारे में बाते करते थे, किसी के पास अँगरेज़ सरकार की खबर होती तो वो लोगो को बताता था, एक बार तो एक बड़े क्रन्तिकारी ने यहाँ हमारा भक्त बन कर शरण भी ली थी, नाम भी बता देते, लेकिन तुम कल जा के इतिहास की किताब में उलझ जाओगे, इसीलिए रहने दो, कुछ साल यह चलता रहा, हमे लगा इन्सान कुछ सिख रहा हैं| लेकिन फिर देश आज़ाद होगया|
देश आज़ाद होने के बाद गणेश पूजा तो होती रही लेकिन अब आरती के बाद सुनहरे देश के सपने देखे जाते या सब्ज बाग़ दिखाए जाते, कभी कोई कहता रुसी सरकार हमे ये देगी वो देगी, तो कभी कोई कहता हमे खुद के भरोसे ही आगे बढ़ना चाहिए, लोग अपनी फसलो, मजदूरी, सहकारी संस्था जैसी बाते करते, जहाँ कुछ की बातो में जनहित होता तो कुछ की बातो में व्यक्तिगत हित| सत्तर के दशक तक सरपंच के दादा ने गणेशोत्सव की जिम्मेदारी अपने बेटे, सरपंच के पिता देदी, उसने दुसरे गांवो में होने वाली खेल तमाशे देखे थे, और उसका ऐसे ही एक खेल तमाशे का समूह बनाने का, खुद का सपना था | उसे गाँव, देश के विकास वाली बातो में कोई रूचि नहीं थी, ये सब उसे बेकार की बाते लगती, वो उन लोगो में जिन्हें लगता कि इससे अच्छी तो अंग्रेजी सरकार थी| अपनी सरकार के नाम पर लोग अपने ही लोगो को ठग रहे हैं| उसे इसका समाधान तो नहीं मालूम था, न ही उसने कभी खोजने की कोशिश की, उसने तो खेल तमाशो में मज़ा आने लगा था | उसके लिए काल्पनिक जीवन ही जीवन का उद्देश्य था| 
तो अब शुरू होती हैं गणेशोत्सव के व्यक्तिगत हित की कहानी| उसने रात में आरती के बाद अपने खेल तमाशे दिखने शुरू कर दिए, शुरू के एक दो साल तो ये धार्मिक थे, फिर किसी काल्पनिक राजा रानी की कहानियाँ होने लगी| वो अपनी छोटी सी दुनिया का राजा था, उसे लगता गणेशोत्सव करा कर, लोगो को खेल तमाशे दिखा कर, वो राम राज्य चला रहा हैं| फिर उसके कुछ मसखरे चमचो ने खेल तमाशो के नाम पर अनाप शनाप खेल शुरू कर दिए, लोगो इससे मज़ा भी आता| लोग भूल गये थे कि इस पंडाल में मैं भी हूँ, अक्सर आरती के बाद पहले एक धार्मिक नाटक होता, तब तक लगभग सारे बच्चे सो जाते, जो नहीं सोते वो चल कर और जो सो जाते अपने माँ की गोदी में, माँ के साथ घर चले जाते, अब सिर्फ तुम्हारे गाँव के पुरुष बचते, जिन्हें धर्म लाज थी वो भी चुपके से निकल लेते, बचे लोग अपने ही अलग खेल तमाशे करते| ऐसे ही एक तमाशे के बीच सरपंच के पिता और पटवारी के पिता में तु तु मैं मैं होगयी| लोगो को लगा अगले साल सब ठीक हो जायेगा| लेकिन हमे पता था यह झगड़ा एक और कुरीति को जन्म देना वाला हैं|
पटवारी के पिता ने गाँव के लोगो से कहा कि इस गणेशोत्सव में सारे लोगो को मान सम्मान नहीं मिलता, नाटको के नाम पर अश्लीलता होती हैं, जैसे वो एक धार्मिक आयोजन करने वाला था| उसने अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक अलग पंडाल बनाने की बात की| जो लोग सरपंच के पिता को कुछ खास पंसद नहीं करते थे| वो पटवारी के पिता के साथ हो लिए| अब भगवान् की पूजा करने के लिए दो समूह थे, दोनों ही कहते वो धार्मिक है और दुसरे कुधर्मी| लेकिन दोनों के ही मन के दुसरे को नीचा दिखने का विचार था| दोनों ने ही समूह ने कुछ साल तो अपने ही दम खूब तामझाम किया| फिर लोगो से चंदा लेना शुरू कर दिया| चंदा भगवान की पूजा की नाम पर नहीं अपितु किसी प्रसिद्ध खेल तमाशे के नाम पर लिया जाता था| इन दोनों ने अब गणेश पूजा को अपने अहम्, अपनी ताकत दिखने का जरिया बना था| कौन बड़ी मूर्ति लायेगा, कौन बड़ा खेल तमाशा दिखायेगा| अब ये विधायक सांसद को भी बुलाने लगे, अपना जोर दिखने के लिए, और अस्सी के दशक आते आते यह दो राजनैतिक पार्टियों का गणेशोत्सव बन गया| दोनों ही जनता की हिमायती, एक दुसरे पर कीचड़ उछलती, लेकिन काम दोनों ही एक ही करती| अब अस्सी का दशक आ चूका था| लोगो ने सुना था कि परदे पर लोग बोलते हैं, चलते हैं, वैसे तो सिनेमा बहुत पहले आगया था, लेकिन तुम्हारे गाव में इसे सरपंच के पिता ले कर आये थे| उनके शौक ने उन्हें विडिओ प्लयेर से मिलवाया| बस फिर क्या उन्होंने अब रात में आरती के बाद विडिओ प्लयेर में फिल्मे दिखानी शुरू करदी| क्रम अभी भी वहीँ था पहले धार्मिक, फिर सुन्दर हिरोइनों वाली फिल्मे| तुम्हारे गाँव के नवयुवक पर खूब जादू चल था| सरपंच के पिता का जवाब देने के लिए पटवारी के पिता ने आर्केस्ट्रा का सहारा ले लिया| इस तरह यह कुरीति अपनी जड़ मजबूत बनाती गयी| 
किन्तु इन दोनों से विपरीत के इनके बेटे समझदार थे, उन्होंने गणेशोत्सव से राजनीती और बेहूदापन निकालने का प्रयास किया, दोनों ने मिल कर फैसला लिया कि फिर से केवल एक पंडाल होगा| उनकी इमानदार प्रयास ने आपस की खींचतान तो कम कर दी लेकिन, नब्बे की दशक के फ़िल्मी दीवानों और इस गाव में बोयी हुई कुरीति से लड़ना आसान नहीं था| तुम तो देख ही रहे हो ओमी, क्या होता हैं तुम्हारे गाँव में गणेश पूजा के नाम पर|"
"आपको इतना सब पता हैं, कहीं आप सच में तो भगवान नहीं हो?" ओमी ने पूछा 
"हा हा हा हा तुम्हे अभी शंका हैं, इससे क्या फरक पड़ता हैं कि हम कौन हैं, तुम भले लगे सोचा आज तुम्हे तुम्हारे ही गाँव की कहानी तुम्हे ही सुनाऊ"
"सुनाना ही था कुछ अच्छा सुनाते, क्या गणेश पूजा से कुछ अच्छा नही होता अब?"
" होता हैं न, चलो तुम्हे भरत के बारे में बताता हूँ, पिछले साल वो अपनी दादी के साथ पूजा में आता था, बाकि बच्चो की तरह उसे भी मेरी मूर्ति अच्छी लगती, बार बार प्रसाद लेता, और मेरे बारे में सवाल करता रहता| इस बार वो अपने दोस्तों के साथ ही आया, उसकी दादी आजकल बीमार रहती हैं, उसे और उसके दोस्तों को मैंने अपनी कहानी सुनाई, कि कैसे मैंने माता पिता के चक्कर लगा कर उन्हें खुश किया| भरत को यह कहानी बहुत अच्छी लगी| दूसरे दिन भी उसने दोबारा प्रसाद लिया, किंतु दूसरी बार अपनी दादी के लिए, अपने पोते का यह प्यार देख उसकी दादी बहुत खुश हुई, और हम यह देख कर खुद हुए कि भरत ने कुछ सिखा"
" यह हुई न भगवान वाली बात" अब तक ओमी को भरोसा हो चूका था कि वो भगवान से ही बात कर रहा था| वो कुछ और बोलता इससे पहले ही भगवान बोले " ठीक है ओमी अब तुम जाओ, तुम्हारी माँ चिंता कर रही होगी, तुम भी ज़रा उनका ख्याल रखा करो, कल जब तुम सब मुझे विदा करने ले जाओ तो फ़िल्मी गाने नहीं कुछ भजन गाना, अगले साल फिर मिलेंगे"

गणपति बप्पा मोरिया
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